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ग्लोबल वार्मिंग समस्या का हल कार्बन डाई-ऑक्साइड में ही छुपा है

जयपुर। आज के इस तरक्की पसंद दौर में जलवायु परिवर्तन की समस्या ने काफी विकराल रूप धारण कर लिया है। तभी तो किसी भी मौसम का अब कोई तय वक्त नही रह गया है। कभी भी बारिश आ जाती है, कभी भी सर्दी पड़ने लग जाती है। और गर्मी की तो पूछिए मत, सारे मौसम
ग्लोबल वार्मिंग समस्या का हल कार्बन डाई-ऑक्साइड में ही छुपा है

जयपुर। आज के इस तरक्की पसंद दौर में जलवायु परिवर्तन की समस्या ने काफी विकराल रूप धारण कर लिया है। तभी तो किसी भी मौसम का अब कोई तय वक्त नही रह गया है। कभी भी बारिश आ जाती है, कभी भी सर्दी पड़ने लग जाती है। और गर्मी की तो पूछिए मत, सारे मौसम पर भारी पड़ने लग गई है। आसमान से बरसता हुआ लावा मार्च के महीने से लेकर अक्टूबर तक चलता रहता है। इसी बीच हाल ही में वैज्ञानिकों ने उस कहावत को सच कर दिखाया है जिसमें कहा गया है कि ज़हर ही ज़हर की दवा है।ग्लोबल वार्मिंग समस्या का हल कार्बन डाई-ऑक्साइड में ही छुपा है

जी हां, वैज्ञानिकों ने जहरीली गैस तथा जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार कार्बन डाई-ऑक्साइड के दुष्प्रभावों से निपटने का एक स्थायी तरीका खोज लिया है। दरअसल वैज्ञानिकों ने बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैस कार्बन डाई-ऑक्साइड को फौरन एक ठोस पत्थर में बदलने का तरीका खोज निकाला है। जी हां, यह ऐतिहासिक सफलता आइसलैंड के शोधकर्ताओं को हासिल हुई है। बता दे कि 2 साल तक चली इस परियोजना को कार्बन फिक्स नाम दिया गया है।ग्लोबल वार्मिंग समस्या का हल कार्बन डाई-ऑक्साइड में ही छुपा है

हालांकि इससे पहले भी कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेड (सीसीएस) नामक तकनीक से ऐसा किया जाता रहा था, लेकिन वह प्रक्रिया काफी धीमी और कम प्रभावी थी। नई तकनीक के द्वारा कार्बन डाई-ऑक्साइड को वातावरण से अलग करके पत्थरों में बदला जा सकेगा। यह अनुसंधान कोलंबिया यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ आइसलैंड और यूनिवर्सिटी ऑफ टाउलाउस ऐंड रिक्‍याविक एनर्जी के शोधकर्ताओं ने एक साथ मिलकर किया हैं। बता दे कि इसके लिए वैज्ञानिकों ने आइसलैंड के एक ज्वालामुखीय द्वीप पर कई तरह के प्रयोग किए थे।ग्लोबल वार्मिंग समस्या का हल कार्बन डाई-ऑक्साइड में ही छुपा है

इन प्रयोगों में कार्बन डाई-ऑक्साइड और पानी को बेसाल्ट की मजबूत चट्टानों के नीचे 540 मीटर गइराई में आपस में मिलाकर रासायनिक अभिक्रियाएं करवाई गई। बता दे कि यह अम्लीय मिश्रण चट्टान में मौजूद कैल्शियम और मैग्नीशियम में घुल गया और इस प्रक्रिया से चूना पत्थर यानी लाइमस्टोन का निर्माण हुआ। अगर यह तकनीक व्यापक रूप से सफल रहती है तो कुछ सालों में इस जहरीली गैस को इस तरह से कम किया जा सकेगा।

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