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मुट्ठी भर कश्मीरी पंडितों ने घाटी में अपनी संस्कृति को जीवित रखा

कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से 1989-1990 के दौरान जब जबरन पलायन हुआ तो समुदाय के कुछ हजार लोग ऐसे भी थे जिन्होंने घाटी नहीं छोड़ी थी। इनमें से कुछ प्रमुख राजनीतिक या व्यावसायिक परिवारों को छोड़कर औरों के बारे में बहुत कुछ नहीं सुना गया क्योंकि प्रवासी कश्मीरी पंडितों ने उन लोगों की अनदेखी की
मुट्ठी भर कश्मीरी पंडितों ने घाटी में अपनी संस्कृति को जीवित रखा

कश्मीरी पंडितों का कश्मीर से 1989-1990 के दौरान जब जबरन पलायन हुआ तो समुदाय के कुछ हजार लोग ऐसे भी थे जिन्होंने घाटी नहीं छोड़ी थी। इनमें से कुछ प्रमुख राजनीतिक या व्यावसायिक परिवारों को छोड़कर औरों के बारे में बहुत कुछ नहीं सुना गया क्योंकि प्रवासी कश्मीरी पंडितों ने उन लोगों की अनदेखी की जो घाटी में रह गए।

जम्मू में शरण लेने वाले कई कश्मीरी पंडितों ने जरूर घाटी में रह गए लोगों के लिए सहानुभूति व्यक्त की। प्रवासी कश्मीरी पंडितों से यह सुनना आम था कि जो लोग घाटी में रह गए हैं, वे शायद दबाव में इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। हालांकि कश्मीरी पंडितों का घाटी से निकल आना बाद में भी जारी रहा लेकिन जो लोग रुके रहे, उनकी दुर्दशा को समझने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। केंद्र सरकार की गणना के मुताबिक, 2006 में राज्यपाल शासन की समाप्ति के समय घाटी में लगभग 18,000 कश्मीरी पंडित रह रहे थे।

इस कम संख्या वाले समुदाय के घरों में मार्च 1997 में उस वक्त मातम पसर गया जब संग्रामपुरा में सात कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी गई। जून 1997 में गूल-रामबन रोड पर एक सार्वजनिक परिवहन बस को रोक कर तीन कश्मीरी पंडित यात्रियों को मार डाला गया। जनवरी 1998 में वंधामा में 23 कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी गई थी। मार्च 2003 में नादीमर्ग में इनका एक और संहार हुआ जब 24 पुरुष, महिलाएं और बच्चे आतंकवादियों की बंदूकों का निशाना बन गए। यह सूची लंबी और दर्दनाक है।

कश्मीर के बाहर कश्मीरी पंडित समुदाय ने इन हत्याओं की निंदा की और इसे उठाया, लेकिन कुछ ही लोगों ने घाटी जाकर वहां के पंडितों का हाल जानने की कोशिश की। इन वीभत्स कृत्यों के बाद, सरकार ने कश्मीरी पंडित परिवारों को दूरदराज के गांवों से हटाकर जिला मुख्यालय में स्थानांतरित कर दिया। अलगाव और भय के साथ, वे शारीरिक और मानसिक तनाव का शिकार हो गए। कश्मीरी हिंदुओं के लिए ना केवल असुरक्षा, बल्कि रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ संपर्क का टूटना, आय और नौकरियों को खोना, राजस्व रिकॉर्ड खोने का डर और अपनी भूमि पर अधिकार खोने के दुख भी जुड़ गए। उस भयावह समय में श्रीनगर सहित कुछ जगहों पर लगभग 150 परिवार बेहद खराब परिस्थितियों में रह रहे थे, निकटतम गुरुद्वारा लंगरों में भोजन कर भूख मिटा रहे थे।

भू-माफिया ने स्थिति का फायदा उठाया और बिना निगरानी वाली मंदिर संपत्तियों सहित अन्य ऐसी ही भूमि को हथियाना शुरू कर दिया। मंदिरों के ट्रस्ट के 1990 से ही काम नहीं करने के कारण मामला और बिगड़ गया। ट्रस्टी कश्मीर से भाग गए थे और अन्य लोगों ने ट्रस्ट की जमीनों को इस विश्वास के तहत बेच दिया कि घाटी में उनकी वापसी असंभव है। इसलिए, भूमि माफिया द्वारा की जा रही डील को ही मान लिया गया। कुछ मंदिरों के रखरखाव को बनाए रखने के लिए घाटी में पंडित समुदाय ने हताशा में नए मंदिर बोर्ड बनाने शुरू किए और मंदिर की भूमि को तीसरे पक्ष को हस्तांतरित करने और इनकी बिक्री को रोकने के लिए कानूनी मदद ली।

जून 2010 में एक सामुदायिक जनगणना पूरी हुई, जिसमें कश्मीरी पंडितों की आबादी लगभग 4,000 थी। इसमें 20 प्रतिशत श्रीनगर जिले में थे, 24 प्रतिशत अनंतनाग जिले में रह रहे थे, 21 प्रतिशत पुलवामा जिले में रह रहे थे। बाकी कश्मीर के शेष सात जिलों में बिखरे हुए थे। जनगणना ने पिछले दो दशकों (1990-2010) में घाटी में लैंगिक विवरण, रोजगार की स्थिति, विवाह, जन्म और मृत्यु की स्थिति बताई।

कश्मीरी पंडितों के लिए प्रधानमंत्री रोजगार पैकेज को ‘2009 के नियम’ कहा जाता है। इसे एसआरओ 412 के माध्यम से लागू किया जाना था। इसे अप्रैल 2008 में प्रधानमंत्री की राज्य की यात्रा के दौरान घोषित किया गया था ताकि कश्मीरी पंडितों को रोजगार प्रदान किया जा सके। लेकिन, हैरानी की बात है कि राज्य सरकार ने फैसला किया कि पीएम का रोजगार पैकेज केवल ‘प्रवासी कश्मीरी पंडित’ पर लागू होता है, ना कि घाटी में रहने वाले बेरोजगार कश्मीरी पंडितों पर। घाटी से बाहर रह रहे कश्मीरी पंडित नेताओं से यह अनुरोध करने का प्रयास किया गया कि वे एसआरओ 412 को घाटी स्थित कश्मीरी पंडितों तक बढ़ाने की मांग करें क्योंकि वे भी विस्थापित हुए हैं और उनकी हालत बुरी है। लेकिन, यह प्रयास अनसुना रह गया।

आखिरकार, राज्य सरकार ने आठ साल की देरी के बाद अक्टूबर 2017 में एसआरओ 425 को मंजूरी देकर नियम 2009 के दायरे में कश्मीरी पंडितों को शामिल कर लिया। लेकिन, जैसे ही एसआरओ 425 जारी किया गया, घाटी के सिख समुदाय ने राज्य अदालत में इसके कार्यान्वयन को अवरुद्ध कर दिया। एक अन्य कानूनी लड़ाई के बाद, राज्य के उच्च न्यायालय ने मार्च 2019 में कश्मीरी पंडितों के पक्ष में निर्णय दिया जो आज तक लागू नहीं हुआ है। घाटी में रह रहे कश्मीरी पंडितों का प्रयास अब मौजूदा केंद्रशासित प्रदेश सरकार द्वारा ग्रेड चार भर्ती अभियान के तहत कम से कम 500 नौकरियों को सुरक्षित करना है जो 2020-2021 के दौरान केंद्रशासित प्रदेश में 16,847 नए रोजगार मुहैया कराएगा।

आज उन करीब 800 कश्मीरी पंडितों के परिवारों की पीड़ा के बारे में बहुत कम जाना जाता है जो कश्मीर घाटी को अपना घर कहते हैं। वे छोटी बागों के मालिक हैं, दुकानदार, सार्वजनिक और निजी स्कूलों में शिक्षक, विभिन्न सरकारी विभागों के कर्मचारी हैं और इनमें से कुछ रियल एस्टेट एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं। कुछ धर्मार्थ और बत्रा ट्रस्टों के लिए काम कर रहे हैं और कुछ अन्य यात्री निवास समूह के होटलों में धार्मिक पर्यटन के लिए काम कर रहे हैं। वे ज्यादातर अज्ञात रहे हैं, लेकिन 8 जून 2020 को इनमें से एक, श्री अजय पंडिता नाम के एक सरपंच को आतंकवादियों द्वारा मार डाले जाने के बाद इनकी तरफ ध्यान गया।

मुट्ठी भर ‘गैर-प्रवासी’ कश्मीरी पंडित बाकी लोगों द्वारा नजरअंदाज किए जाने के बावजूद बच गए हैं। और बावजूद इसके कि उनका भविष्य अंधकारमय दिख रहा है, उन्होंने उच्चतम स्तर की दृढ़ता, धैर्य और लचीलापन दिखाया है। आज, वे वास्तव में कश्मीर की प्राचीन संस्कृति, धर्म और रीति-रिवाजों को प्रतिकूल वातावरण में जीवित रखे हुए हैं।

श्रयूज स्त्रोत आईएएनएस

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